featured post

एक अपील

ऐ घर पे बैठे तमाशबीन लोग लुट रहा है मुल्क, कब तलक रहोगे खामोश शिकवा नहीं है उनसे, जो है बेखबर पर तु तो सब जानता है, मैदान में क्यों नही...

Friday 2 November 2012

दुविधा

No comments:
छाया है घना कोहरा
या सुलग रही है कहीं पर आग
ये भीड़ है तमाशा देखने वालों की
या जनता गई है जाग

ये हाथों में तिरंगा लहरानेवाले
वंदे मातरम का नारा लगानेवाले
पन्द्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी आया है
या है ये आज़ादी के परवाने

ये बादलों की गड़गड़ाहट है
या जनता रही दहाड़
निकली है भीड़ सैर पर
या फेंकने सिंहासन को उखाड़

यहाँ हर कोई है गुस्से में
या चेहरे की ऐसी ही है बनावट
आए है ये व्यवस्था परिवर्तन के लिए
या थोड़े दिनों की है कसावट  

Wednesday 31 October 2012

दीपावली

4 comments:
दीपों का त्यौहार आया
पूरा देश जगमगाया
ढेरों खुशियाँ संग लाया
मन में उमंग छाया

राम की वापसी हुई थी इस दिन
पूरा हुआ था वनवास कठिन
रावण हरा घर पहुंचे थे राम
लंका जीत किये थे बड़ा काम

घर की होती रंगाई पुताई
चारो ओर दिखती सफाई
एक दूसरे को देते सब बधाई
बंटती रसगुल्ले और मिठाई

सज गए है सारे बाजार
खरीददारों की लगी कतार
फुलझडियों की लगी बहार
पटाखे करते आसमान को उजियार 

Monday 29 October 2012

गुलामी

2 comments:
गुलामी का दर्द बयां करना है मुश्किल
गुलामी में चैन सुकून सब जाता है छीन
दर्द गुलामी का, पूछो उस परिंदे से
कैद है जो, आज एक छोटे से पिंजरे में

झील और झरने का पानी पीता था जो हरदम
कटोरी में पानी देख घुटता है उसका दम
स्वभाव था उसका डालियों में फुदकने का
आज करता है नाकाम कोशिश सलाखों को कुतरने का

पंख फैलाए उड़ता था, कभी दूर आसमां
अब तो पंख फैलाते ही, खत्म होता है जहां
पर्वत की चोटी पर बैठ, ढलते सूरज को निहारता था कभी
आज तो सूरज की रौशनी ही, नसीब होती है कभी-कभी

पहले मीठे फलों को दूर तक ढूंढने था जाता
अब रुखी सुखी रोटी के संग दिन है बिताता
गुलामी के जंजीरों में, जब से दिन है बिताया
आज़ादी का सही मतलब, उसको समझ आया