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एक अपील

ऐ घर पे बैठे तमाशबीन लोग लुट रहा है मुल्क, कब तलक रहोगे खामोश शिकवा नहीं है उनसे, जो है बेखबर पर तु तो सब जानता है, मैदान में क्यों नही...

Friday 23 November 2012

शिकायत

उनकी बेखबरी का आलम तो देखो
लगी है भीषण आग उनके शहर में
और वो अपने महलों में बैठ
मधुर तरानों का लुत्फ़ उठा रहे है

रहनुमा बनके फिरते थे हमारी गलियों में
कहते हुए कि हर मुश्किल में साथ निभाऊंगा
आज जब हमारी ज़िंदगी जहन्नुम हो गई
वो कुर्सी पर बैठ मंद मंद मुस्कुरा रहे है

लंबी फेहरिस्त थी उनकी वायदों की
हमारी तंगहाल ज़िंदगी बदलने की बात करते थे
मौका दिया उनको वायदा निभाने की तो
हमको भूल झोलियाँ अपनी भरे जा रहे है

ईद हो या दिवाली संग होते थे हमारे
चेहरे पर मुस्कुराहट और होठों में दुआ रखते थे
अब दर पर जाते है उनके हाल ए ज़िंदगी कहने तो
मिलना तो दूर, हमसे आँखें चुरा रहे है 

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